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|| श्री गणेश चालीसा ||

जय गणपति सदगुणसदन, कविवर बदन कृपाल। विघ्न हरण मंगल करण, जय जय गिरिजालाल॥


॥दोहा॥

जय गणपति सदगुणसदन, कविवर बदन कृपाल।

विघ्न हरण मंगल करण, जय जय गिरिजालाल॥


जय जय जय गणपति गणराजू।

मंगल भरण करण शुभ काजू ॥ 


॥ श्री बगलामुखी चालीसा ॥

सिर नवा बगलामुखी, लिखूं चालीसा आज।। कृपा करहु मोपर सदा, पूरन हो मम काज।। ...


॥ दोहा ॥

सिर नवा बगलामुखी, लिखूं चालीसा आज।।

कृपा करहु मोपर सदा, पूरन हो मम काज।।


॥ चौपाई ॥

जय जय जय श्री बगला माता। आदिशक्ति सब जग की त्राता।।

बगला सम तब आनन माता। एहि ते भयउ नाम विख्याता।।


शशि ललाट कुण्डल छवि न्यारी। असतुति करहिं देव नर-नारी।।

पीतवसन तन पर तव राजै। हाथहिं मुद्गर गदा विराजै।।


तीन नयन गल चम्पक माला। अमित तेज प्रकटत है भाला।।

रत्न-जटित सिंहासन सोहै। शोभा निरखि सकल जन मोहै।।


आसन पीतवर्ण महारानी। भक्तन की तुम हो वरदानी।।

पीताभूषण पीतहिं चन्दन। सुर नर नाग करत सब वन्दन।।


एहि विधि ध्यान हृदय में राखै। वेद पुराण संत अस भाखै।।

अब पूजा विधि करौं प्रकाशा। जाके किये होत दुख-नाशा।।


प्रथमहिं पीत ध्वजा फहरावै। पीतवसन देवी पहिरावै।।

कुंकुम अक्षत मोदक बेसन। अबिर गुलाल सुपारी चन्दन।।


माल्य हरिद्रा अरु फल पाना। सबहिं चढ़इ धरै उर ध्याना।।

धूप दीप कर्पूर की बात#2368;। प्रेम-सहित तब करै आरती।।


अस्तुति करै हाथ दोउ जोरे। पुरवहु मातु मनोरथ मोरे।।

मातु भगति तब सब सुख खानी। करहुं कृपा मोपर जनजानी।।


त्रिविध ताप सब दुख नशावहु। तिमिर मिटाकर ज्ञान बढ़ावहु।।

बार-बार मैं बिनवहुं तोहीं। अविरल भगति ज्ञान दो मोहीं।।


पूजनांत में हवन करावै। सा नर मनवांछित फल पावै।।

सर्षप होम करै जो कोई। ताके वश सचराचर होई।।


तिल तण्डुल संग क्षीर मिरावै। भक्ति प्रेम से हवन करावै।।

दुख दरिद्र व्यापै नहिं सोई। निश्चय सुख-सम्पत्ति सब होई।।


फूल अशोक हवन जो करई। ताके गृह सुख-सम्पत्ति भरई।।

फल सेमर का होम करीजै। निश्चय वाको रिपु सब छीजै।।


गुग्गुल घृत होमै जो कोई। तेहि के वश में राजा होई।।

गुग्गुल तिल संग होम करावै। ताको सकल बंध कट जावै।।


बीलाक्षर का पाठ जो करहीं। बीज मंत्र तुम्हरो उच्चरहीं।।

एक मास निशि जो कर जापा। तेहि कर मिटत सकल संतापा।।


घर की शुद्ध भूमि जहं होई। साध्का जाप करै तहं सोई।

सेइ इच्छित फल निश्चय पावै। यामै नहिं कदु संशय लावै।।


अथवा तीर नदी के जाई। साधक जाप करै मन लाई।।

दस सहस्र जप करै जो कोई। सक काज तेहि कर सिधि होई।।


जाप करै जो लक्षहिं बारा। ताकर होय सुयश विस्तारा।।

जो तव नाम जपै मन लाई। अल्पकाल महं रिपुहिं नसाई।।


सप्तरात्रि जो पापहिं नामा। वाको पूरन हो सब कामा।।

नव दिन जाप करे जो कोई। व्याधि रहित ताकर तन होई।।


ध्यान करै जो बन्ध्या नारी। पावै पुत्रादिक फल चारी।।

प्रातः सायं अरु मध्याना। धरे ध्यान होवै कल्याना।।


कहं लगि महिमा कहौं तिहारी। नाम सदा शुभ मंगलकारी।।

पाठ करै जो नित्या चालीसा।। तेहि पर कृपा करहिं गौरीशा।।


॥ दोहा ॥

संतशरण को तनय हूं, कुलपति मिश्र सुनाम।

हरिद्वार मण्डल बसूं, धाम हरिपुर ग्राम।।

उन्नीस सौ पिचानबे सन् की, श्रावण शुक्ला मास।

चालीसा रचना कियौ, तव चरणन को दास।।




॥ इति श्री बगलामुखी चालीसा ॥ 




॥चौपाई॥

जै गजबदन सदन सुखदाता। विश्व विनायक बुद्घि विधाता॥

वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन। तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन॥

राजत मणि मुक्तन उर माला। स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला॥

पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं । मोदक भोग सुगन्धित फूलं ॥1॥


सुन्दर पीताम्बर तन साजित । चरण पादुका मुनि मन राजित ॥

धनि शिवसुवन षडानन भ्राता । गौरी ललन विश्वविख्याता ॥

ऋद्घिसिद्घि तव चंवर सुधारे । मूषक वाहन सोहत द्घारे ॥

कहौ जन्म शुभकथा तुम्हारी । अति शुचि पावन मंगलकारी ॥2॥


एक समय गिरिराज कुमारी । पुत्र हेतु तप कीन्हो भारी ॥

भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा । तब पहुंच्यो तुम धरि द्घिज रुपा ॥

अतिथि जानि कै गौरि सुखारी । बहुविधि सेवा करी तुम्हारी ॥

अति प्रसन्न है तुम वर दीन्हा । मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा ॥3॥


मिलहि पुत्र तुहि, बुद्घि विशाला । बिना गर्भ धारण, यहि काला ॥

गणनायक, गुण ज्ञान निधाना । पूजित प्रथम, रुप भगवाना ॥

अस कहि अन्तर्धान रुप है । पलना पर बालक स्वरुप है ॥

बनि शिशु, रुदन जबहिं तुम ठाना। लखि मुख सुख नहिं गौरि समाना ॥4॥


सकल मगन, सुखमंगल गावहिं । नभ ते सुरन, सुमन वर्षावहिं ॥

शम्भु, उमा, बहु दान लुटावहिं । सुर मुनिजन, सुत देखन आवहिं ॥

लखि अति आनन्द मंगल साजा । देखन भी आये शनि राजा ॥

निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं । बालक, देखन चाहत नाहीं ॥5॥


गिरिजा कछु मन भेद बढ़ायो । उत्सव मोर, न शनि तुहि भायो ॥

कहन लगे शनि, मन सकुचाई । का करिहौ, शिशु मोहि दिखाई ॥

नहिं विश्वास, उमा उर भयऊ । शनि सों बालक देखन कहाऊ ॥

पडतहिं, शनि दृग कोण प्रकाशा । बोलक सिर उड़ि गयो अकाशा ॥6॥


गिरिजा गिरीं विकल है धरणी । सो दुख दशा गयो नहीं वरणी ॥

हाहाकार मच्यो कैलाशा । शनि कीन्हो लखि सुत को नाशा ॥

तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधायो । काटि चक्र सो गज शिर लाये ॥

बालक के धड़ ऊपर धारयो । प्राण, मन्त्र पढ़ि शंकर डारयो ॥7॥


नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे । प्रथम पूज्य बुद्घि निधि, वन दीन्हे ॥

बुद्घ परीक्षा जब शिव कीन्हा । पृथ्वी कर प्रदक्षिणा लीन्हा ॥

चले षडानन, भरमि भुलाई। रचे बैठ तुम बुद्घि उपाई ॥

चरण मातुपितु के धर लीन्हें । तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें ॥8॥


तुम्हरी महिमा बुद्घि बड़ाई । शेष सहसमुख सके न गाई ॥

मैं मतिहीन मलीन दुखारी । करहुं कौन विधि विनय तुम्हारी ॥

भजत रामसुन्दर प्रभुदासा । जग प्रयाग, ककरा, दर्वासा ॥

अब प्रभु दया दीन पर कीजै । अपनी भक्ति शक्ति कछु दीजै ॥9॥


॥दोहा॥

श्री गणेश यह चालीसा, पाठ करै कर ध्यान। नित नव मंगल गृह बसै, लहे जगत सन्मान॥

सम्बन्ध अपने सहस्त्र दश, ऋषि पंचमी दिनेश। पूरण चालीसा भयो, मंगल मूर्ति गणेश ॥ 


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॥ श्री लक्ष्मी चालीसा ॥

मातु लक्ष्मी करि कृपा, करो हृदय में वास। मनोकामना सिद्घ करि, परु वहु मेरी आस॥


॥ दोहा॥

मातु लक्ष्मी करि कृपा, करो हृदय में वास।

मनोकामना सिद्घ करि, परुवहु मेरी आस॥


॥ सोरठा॥

यही मोर अरदास, हाथ जोड़ विनती करुं।

सबविधिकरौसुवास, जय जननि जगदंबिका॥


॥ चौपाई ॥

सिन्धु सुता मैं सुमिरौ तोही।

ज्ञान बुद्घि विघा दो मोही ॥


तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरवहु आस हमारी॥

जय जय जगत जननि जगदम्बा। सबकी तुम ही हो अवलम्बा॥1॥


तुम ही हो सब घट घट वासी। विनती यही हमारी खासी॥

जगजननी जय सिन्धु कुमारी। दीनन की तुम हो हितकारी॥2॥


विनवौं नित्य तुमहिं महारानी। कृपा करौ जग जननि भवानी॥

केहि विधि स्तुति करौं तिहारी। सुधि लीजै अपराध बिसारी॥3॥


कृपा दृष्टि चितववो मम ओरी। जगजननी विनती सुन मोरी॥

जज्ञान बुद्घि जय सुख की दाता। संकट हरो हमारी माता॥4॥


क्षीरसिन्धु जब विष्णु मथायो। चौदह रत्न सिन्धु में पायो॥

चौदह रत्न में तुम सुखरासी। सेवा कियो प्रभु बनि दासी॥5॥


जब जब जन्म जहां प्रभु लीन्हा। रुप बदल तहं सेवा कीन्हा॥

स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा। लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥6॥


तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं। सेवा कियो हृदय पुलकाहीं॥

अपनाया तोहि अन्तर्यामी। विश्व विदित त्रिभुवन की स्वामी॥7॥


तुम सम प्रबल शक्ति नहीं आनी। कहं लौ महिमा कहौं बखानी॥

मन क्रम वचन करै सेवकाई। मन इच्छित वांछित फल पाई॥8॥


तजि छल कपट और चतुराई। पूजहिं विविध भांति मनलाई॥

और हाल मैं कहौं बुझाई। जो यह पाठ करै मन लाई॥9॥


ताको कोई कष्ट नोई। मन इच्छित पावै फल सोई॥

त्राहि त्राहि जय दुःख निवारिणि। त्रिविध ताप भव बंधन हारिणी॥10॥


जो चालीसा पढ़ै पढ़ावै। ध्यान लगाकर सुनै सुनावै॥

ताकौ कोई न रोग सतावै। पुत्र आदि धन सम्पत्ति पावै॥11॥


पुत्रहीन अरु संपति हीना। अन्ध बधिर कोढ़ी अति दीना॥

विप्र बोलाय कै पाठ करावै। शंका दिल में कभी न लावै॥12॥


पाठ करावै दिन चालीसा। ता पर कृपा करैं गौरीसा॥

सुख सम्पत्ति बहुत सी पावै। कमी नहीं काहू की आवै॥13॥


बारह मास करै जो पूजा। तेहि सम धन्य और नहिं दूजा॥

प्रतिदिन पाठ करै मन माही। उन सम कोइ जग में कहुं नाहीं॥14॥


बहुविधि क्या मैं करौं बड़ाई। लेय परीक्षा ध्यान लगाई॥

करि विश्वास करै व्रत नेमा। होय सिद्घ उपजै उर प्रेमा॥15॥


जय जय जय लक्ष्मी भवानी। सब में व्यापित हो गुण खानी॥

तुम्हरो तेज प्रबल जग माहीं। तुम सम कोउ दयालु कहुं नाहिं॥16॥


मोहि अनाथ की सुधि अब लीजै। संकट काटि भक्ति मोहि दीजै॥

भूल चूक करि क्षमा हमारी। दर्शन दजै दशा निहारी॥17॥


बिन दर्शन व्याकुल अधिकारी। तुमहि अछत दुःख सहते भारी॥

नहिं मोहिं ज्ञान बुद्घि है तन में। सब जानत हो अपने मन में॥18॥


रुप चतुर्भुज करके धारण। कष्ट मोर अब करहु निवारण॥

केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई। ज्ञान बुद्घि मोहि नहिं अधिकाई॥19॥


॥ दोहा॥

तत्राहि त्राहि दुख हारिणी, हरो वेगि सब त्रास। जयति जयति जय लक्ष्मी, करो शत्रु को नाश॥

रामदास धरि ध्यान नित, विनय करत कर जोर। मातु लक्ष्मी दास पर, करहु दया की कोर॥



॥ इति श्री लक्ष्मी चालीसा ॥    


 

॥ श्री दुर्गा चालीसा ॥

नमो नमो दुर्गे सुख करनी। नमो नमो दुर्गे दुःख हरनी॥


नमो नमो दुर्गे सुख करनी। नमो नमो दुर्गे दुःख हरनी॥

निरंकार है ज्योति तुम्हारी। तिहूँ लोक फैली उजियारी॥

शशि ललाट मुख महाविशाला। नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥

रूप मातु को अधिक सुहावे। दरश करत जन अति सुख पावे॥1॥


तुम संसार शक्ति लै कीना। पालन हेतु अन्न धन दीना॥

अन्नपूर्णा हुई जग पाला। तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥

प्रलयकाल सब नाशन हारी। तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥

शिव योगी तुम्हरे गुण गावें। ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥2॥


रूप सरस्वती को तुम धारा। दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥

धरयो रूप नरसिंह को अम्बा। परगट भई फाड़कर खम्बा॥

रक्षा करि प्रह्लाद बचायो। हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥

लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं। श्री नारायण अंग समाहीं॥3॥


क्षीरसिन्धु में करत विलासा। दयासिन्धु दीजै मन आसा॥

हिंगलाज में तुम्हीं भवानी। महिमा अमित न जात बखानी॥

मातंगी अरु धूमावति माता। भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥

श्री भैरव तारा जग तारिणी। छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥4॥


केहरि वाहन सोह भवानी। लांगुर वीर चलत अगवानी॥

कर में खप्पर खड्ग विराजै ।जाको देख काल डर भाजै॥

सोहै अस्त्र और त्रिशूला। जाते उठत शत्रु हिय शूला॥

नगरकोट में तुम्हीं विराजत। तिहुँलोक में डंका बाजत॥5॥


शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे। रक्तबीज शंखन संहारे॥

महिषासुर नृप अति अभिमानी। जेहि अघ भार मही अकुलानी॥

रूप कराल कालिका धारा। सेन सहित तुम तिहि संहारा॥

परी गाढ़ सन्तन र जब जब। भई सहाय मातु तुम तब तब॥6॥


अमरपुरी अरु बासव लोका। तब महिमा सब रहें अशोका॥

ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी। तुम्हें सदा पूजें नरनारी॥

प्रेम भक्ति से जो यश गावें। दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥

ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई। जन्ममरण ताकौ छुटि जाई॥7॥


जोगी सुर मुनि कहत पुकारी।योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥

शंकर आचारज तप कीनो। काम अरु क्रोध जीति सब लीनो॥

निशिदिन ध्यान धरो शंकर को। काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥

शक्ति रूप का मरम न पायो। शक्ति गई तब मन पछितायो॥8॥


शरणागत हुई कीर्ति बखानी। जय जय जय जगदम्ब भवानी॥

भई प्रसन्न आदि जगदम्बा। दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥

मोको मातु कष्ट अति घेरो। तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥

आशा तृष्णा निपट सतावें। मोह मदादिक सब बिनशावें॥9॥


शत्रु नाश कीजै महारानी। सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥

करो कृपा हे मातु दयाला। ऋद्धिसिद्धि दै करहु निहाला॥

जब लगि जिऊँ दया फल पाऊँ । तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊँ ॥

श्री दुर्गा चालीसा जो कोई गावै। सब सुख भोग परमपद पावै॥10॥


देवीदास शरण निज जानी। कहु कृपा जगदम्ब भवानी॥ 

 

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॥ श्री सरस्वती चालीसा ॥

जनक जननि पदम दुरज, निज मस्तक पर धारि। बन्दौं मातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि।...


॥ दोहा ॥

जनक जननि पदम दुरज, निज मस्तक पर धारि।

बन्दौं मातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि।


पूर्ण जगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु।

राम सागर के पाप को, मातु तुही अब हन्तु ..


॥ चौपाई ॥

जय श्रीसकल बुद्धि बलरासी, जय सर्वज्ञ अमर अविनाशी।

जय जय जय वीणाकर धारी, करती सदा सुहंस सवारी।


रूप चतुर्भुजधारी माता, सकल विश्व अन्दर विख्याता।

जग में पाप बुद्धि जब होती, तबही धर्म की फीकी ज्योति।


तबहि मातु का निज अवतारा, पाप हीन करती महि तारा।

बाल्मीकि जी थे हत्यारे, तव प्रसाद जानै संसारा।


रामचरित जो रचे बनाई, आदि कवि पदवी को पाई।

कालिदास जो भये विख्याता, तेरी कृपा दृष्टि से माता।


तुलसी सूर आदि विद्वाना, भे और जो ज्ञानी नाना।

तिन्ह न और रहेउ अवलम्बा, केवल कृपा आपकी अम्बा।


करहु कृपा सोई मातु भवानी, दुखित दीन निज दासहि जानी।

पुत्र करई अपराध बहूता, तेहि न धरइ चित सुन्दर माता।


राखु लाज जननि अब मेरी, विनय करू भाँति बहुतेरी।

मैं अनाथ तेरी अवलम्बा, कृपा करउ जय जय जगदम्बा।


मधु कैटभ जो अति बलवाना, बाहुयुद्ध विष्णु से ठाना।

समर हजार पांच में घोरा, फिर भी मुख उनसे नहीं मोरा।


मातु सहाय कीन्ह तेहि काला, बुद्धि विपरीत भई खलहाला।

तेहि ते मृत्यु भई खल केरी, पुरवहु मातु मनोरथ मेरी।


चण्ड मुण्ड जो थे विख्याता, छण महु संहारेउ तेहि माता।

रक्तबीज से समरथ पापी, सुरमुनि हृदय धरा सब काँपी।


काटेउ सिर जिम कदली खम्बा, बार बार बिनऊँ जगदम्बा।

जगप्रसिद्धि जो शुभनिशुंभा, छण में वधे ताहि तू अम्बा।


भरत-मातु बुद्धि फेरेउ जाई, रामचन्द्र बनवास कराई।

एहिविधि रावन वध तू कीन्हा, सुर नर मुनि सबको सुख दीन्हा।


को समरथ तव यश गुन गाना, निगम अनादि अनंत बखाना।

विष्णु रुद्र अज सकहि न मारी, जिनकी हो तुम रक्षाकारी।


रक्त दन्तिका और शताक्षी, नाम अपार है दानव भक्षी।

दुर्गम काज धरा कर कीन्हा, दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा।


दुर्ग आदि हरनी तू माता, कृपा करहु जब जब सुखदाता।

नृप कोपित को मारन चाहै, कानन में घेरे मृग नाहै।


सागर मध्य पोत के भंजे, अति तूफान नहिं कोऊ संगे।

भूत प्रेत बाधा या दुख में, हो दरिद्र अथवा संकट में।


नाम जपे मंगल सब होई, संशय इसमें करइ न कोई।

पुत्रहीन जो आतुर भाई, सबै छाँडि़ पूजें एहि माई।


करै पाठ निज यह चालीसा, होय पुत्र सुन्दर गुण ईशा।

धूपादिक नैवेद्य चढ़ावै, संकट रहित अवश्य हो जावै।


भक्ति मातु की करै हमेशा, निकट न आवै ताहि कलेशा।

बंदी पाठ करें सब बारा, बंदी पाश दूर हो सारा।


राम सागर बांधि सेतु भवानी, कीजै कृपा दास निज जानी।


॥ दोहा ॥

मातु सूर्य कान्ति तव, अन्धकार मम रूप।

डूबन से रक्षा करहुं, परूँ न मैं भव कूप ..


बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, सुनहुँ सरस्वती मातु।

राम सागर अधम को आश्रय तू ही ददातु ..


॥ इति श्री रसरस्वती चालीसा ॥ 



॥ श्री चामुण्डा देवी चालीसा ॥

नीलवरण माँ कालिका रहती सदा प्रचंड । दस हाथो मई ससत्रा धार देती दुस्त को दांड्ड़ ॥...


॥ दोहा ॥

नीलवरण माँ कालिका रहती सदा प्रचंड ।

दस हाथो मई ससत्रा धार देती दुस्त को दांड्ड़ ।।


मधु केटभ संहार कर करी धर्म की जीत ।

मेरी भी बढ़ा हरो हो जो कर्म पुनीत ।।


॥ चौपाई ॥

नमस्कार चामुंडा माता । तीनो लोक मई मई विख्याता ।।

हिमाल्या मई पवितरा धाम है । महाशक्ति तुमको प्रडम है ।।1।।


मार्कंडिए ऋषि ने धीयया । कैसे प्रगती भेद बताया ।।

सूभ निसुभ दो डेतिए बलसाली । तीनो लोक जो कर दिए खाली ।।2।।


वायु अग्नि याँ कुबेर संग । सूर्या चंद्रा वरुण हुए तंग ।।

अपमानित चर्नो मई आए । गिरिराज हिमआलये को लाए ।।3।।


भद्रा-रॉंद्र्रा निट्टया धीयया । चेतन शक्ति करके बुलाया ।।

क्रोधित होकर काली आई । जिसने अपनी लीला दिखाई ।।4।।


चंदड़ मूंदड़ ओर सुंभ पतए । कामुक वेरी लड़ने आए ।।

पहले सुग्गृीव दूत को मारा । भगा चंदड़ भी मारा मारा ।।5।।


अरबो सैनिक लेकर आया । द्रहूँ लॉकंगन क्रोध दिखाया ।।

जैसे ही दुस्त ललकारा । हा उ सबद्ड गुंजा के मारा ।।6।।


सेना ने मचाई भगदड़ । फादा सिंग ने आया जो बाद ।।

हत्टिया करने चंदड़-मूंदड़ आए । मदिरा पीकेर के घुर्रई ।।7।।


चतुरंगी सेना संग लाए । उचे उचे सीविएर गिराई ।।

तुमने क्रोधित रूप निकाला । प्रगती डाल गले मूंद माला ।।8।।


चर्म की सॅडी चीते वाली । हड्डी ढ़ाचा था बलसाली ।।

विकराल मुखी आँखे दिखलाई । जिसे देख सृिस्टी घबराई ।।9।।


चंदड़ मूंदड़ ने चकरा चलाया । ले तलवार हू साबद गूंजाया ।।

पपियो का कर दिया निस्तरा । चंदड़ मूंदड़ दोनो को मारा ।।10।।


हाथ मई मस्तक ले मुस्काई । पापी सेना फिर घबराई ।।

सरस्वती मा तुम्हे पुकारा । पड़ा चामुंडा नाम तिहरा ।।11।।


चंदड़ मूंदड़ की मिरतट्यु सुनकर । कालक मौर्या आए रात पर ।।

अरब खराब युध के पाठ पर । झोक दिए सब चामुंडा पर ।।12।।


उगर्र चंडिका प्रगती आकर । गीडदीयो की वाडी भरकर ।।

काली ख़टवांग घुसो से मारा । ब्रह्माड्ड ने फेकि जल धारा ।।13।।


माहेश्वरी ने त्रिशूल चलाया । मा वेश्दवी कक्करा घुमाया ।।

कार्तिके के शक्ति आई । नार्सिंघई दित्तियो पे छाई ।।14।।


चुन चुन सिंग सभी को खाया । हर दानव घायल घबराया ।।

रक्टतबीज माया फेलाई । शक्ति उसने नई दिखाई ।।15।।


रक्त्त गिरा जब धरती उपर । नया डेतिए प्रगता था वही पर ।।

चाँदी मा अब शूल घुमाया । मारा उसको लहू चूसाया ।।16।।


सूभ निसुभ अब डोडे आए । सततर सेना भरकर लाए ।।

वाज्ररपात संग सूल चलाया । सभी देवता कुछ घबराई ।।17।।


ललकारा फिर घुसा मारा । ले त्रिसूल किया निस्तरा ।।

सूभ निसुभ धरती पर सोए । डेतिए सभी देखकर रोए ।।18।।


कहमुंडा मा ध्ृम बचाया । अपना सूभ मंदिर बनवाया ।।

सभी देवता आके मानते । हनुमत भेराव चवर दुलते ।।19।।


आसवीं चेट नवराततरे अओ । धवजा नारियल भेट चाड़ौ ।।

वांडर नदी सनन करऔ । चामुंडा मा तुमको पियौ ।।20।।


॥ दोहा ॥

सरणागत को शक्ति दो हे जाग की आधार ।

‘ओम’ ये नेया दोलती कर दो भाव से पार ।।



॥ इति श्री चामुण्डा देवी चालीसा ॥ 


॥ श्री विन्ध्येश्वरी चालीसा ॥

नमो नमो विन्ध्येश्वरी, नमो नमो जगदम्ब। सन्तजनों के काज में करती नहीं विलम्ब।॥


॥ दोहा ॥

नमो नमो विन्ध्येश्वरी, नमो नमो जगदम्ब।

सन्तजनों के काज में करती नहीं विलम्ब।


जय जय विन्ध्याचल रानी, आदि शक्ति जग विदित भवानी।

सिंहवाहिनी जय जग माता, जय जय त्रिभुवन सुखदाता।


कष्ट निवारिणी जय जग देवी, जय जय असुरासुर सेवी।

महिमा अमित अपार तुम्हारी, शेष सहस्र मुख वर्णत हारी।


दीनन के दुख हरत भवानी, नहिं देख्यो तुम सम कोई दानी।

सब कर मनसा पुरवत माता, महिमा अमित जग विख्याता।


जो जन ध्यान तुम्हारो लावे, सो तुरतहिं वांछित फल पावै।

तू ही वैष्णवी तू ही रुद्राणी, तू ही शारदा अरु ब्रह्माणी।


रमा राधिका श्यामा काली, तू ही मातु सन्तन प्रतिपाली।

उमा माधवी चण्डी ज्वाला, बेगि मोहि पर होहु दयाला।


तू ही हिंगलाज महारानी, तू ही शीतला अरु विज्ञानी।

दुर्गा दुर्ग विनाशिनी माता, तू ही लक्ष्मी जग सुख दाता।


तू ही जाह्नवी अरु उत्राणी, हेमावती अम्बे निरवाणी।

अष्टभुजी वाराहिनी देवी, करत विष्णु शिव जाकर सेवा।


चौसठ देवी कल्यानी, गौरी मंगला सब गुण खानी।

पाटन मुम्बा दन्त कुमारी, भद्रकाली सुन विनय हमारी।


वज्र धारिणी शोक नाशिनी, आयु रक्षिणी विन्ध्यवासिनी।

जया और विजया बैताली, मातु संकटी अरु विकराली।


नाम अनन्त तुम्हार भवानी, बरनै किमि मानुष अज्ञानी।

जापर कृपा मातु तव होई, तो वह करै चहै मन जोई।


कृपा करहुं मोपर महारानी, सिद्ध करिए अब यह मम बानी।

जो नर धरै मात कर ध्याना, ताकर सदा होय कल्याना।


विपति ताहि सपनेहु नहिं आवै, जो देवी का जाप करावै।

जो नर कहं ऋण होय अपारा, सो नर पाठ करै शतबारा।


निश्चय ऋण मोचन होइ जाई, जो नर पाठ करै मन लाई।

अस्तुति जो नर पढ़ै पढ़ावै, या जग में सो अति सुख पावै।


जाको व्याधि सतावे भाई, जाप करत सब दूर पराई।

जो नर अति बन्दी महं होई, बार हजार पाठ कर सोई।


निश्चय बन्दी ते छुटि जाई, सत्य वचन मम मानहुं भाई।

जा पर जो कछु संकट होई, निश्चय देविहिं सुमिरै सोई।


जा कहं पुत्र होय नहिं भाई, सो नर या विधि करे उपाई।

पांच वर्ष सो पाठ करावै, नौरातन में विप्र जिमावै।


निश्चय होहिं प्रसन्न भवानी, पुत्र देहिं ताकहं गुण खानी।

ध्वजा नारियल आनि चढ़ावै, विधि समेत पूजन करवावै।


नित्य प्रति पाठ करै मन लाई, प्रेम सहित नहिं आन उपाई।

यह श्री विन्ध्याचल चालीसा, रंक पढ़त होवे अवनीसा।


यह जनि अचरज मानहुं भाई, कृपा दृष्टि तापर होइ जाई।

जय जय जय जग मातु भवानी, कृपा करहुं मोहिं पर जन जानी।


॥ इति श्री विन्ध्येश्वरी चालीसा ॥ 


॥ श्री शिव चालीसा ॥

॥ जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान। कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान ॥


॥ दोहा ॥

जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान।

कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान।


॥ चौपाई ॥

जय गिरिजापति दीनदयाला, सदा करत सन्तन प्रतिपाला।

भाल चन्द्रमा सोहत नीके, कानन कुण्डल नागफनी के।


अंग गौर शिर गंग बहाये, मुण्डमाल तन छार लगाये।

वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे, छवि को देख नाग मुनि मोहे।


मैना मातु कि हवे दुलारी, वाम अंग सोहत छवि न्यारी।

कर त्रिशूल सोहत छवि भारी, करत सदा शत्रुन क्षयकारी।


नन्दि गणेश सोहैं तहं कैसे, सागर मध्य कमल हैं जैसे।

कार्तिक श्याम और गणराऊ, या छवि को कहि जात न काऊ।


देवन जबहीं जाय पुकारा, तबहीं दुःख प्रभु आप निवारा।

किया उपद्रव तारक भारी, देवन सब मिलि तुमहि जुहारी।


तुरत षड़ानन आप पठायउ, लव निमेष महं मारि गिरायउ।

आप जलंधर असुर संहारा, सुयश तुम्हार विदित संसारा।


त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई, सबहिं कृपा कर लीन बचाई।

दानिन महं तुम सम कोई नाहीं, सेवक अस्तुति करत सदा ही।


वेद नाम महिमा तव गाई, अकथ अनादि भेद नहिं पाई।

प्रगटी उदधि मंथन में ज्वाला, जरे सुरासुर भये विहाला।


कीन्हीं दया तहं करी सहाई, नीलकण्ठ तब नाम कहाई।

पूजन रामचन्द्र जब कीन्हा, जीत के लंक विभीषण दीन्हा।


सहस कमल में हो रहे धारी, कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी।

एक कमल प्रभु राखे जोई, कमल नयन पूजन चहं सोई।


कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर, भए प्रसन्न दिए इच्छित वर।

जै जै जै अनन्त अविनासी, करत कृपा सबही घटवासी।


दुष्ट सकल नित मोहि सतावै, भ्रमत रहौं मोहि चैन न आवै।

त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो, यहि अवसर मोहि आन उबारो।


लै त्रिशूल शत्रुन को मारो, संकट से मोहि आन उबारो,

मातु पिता भ्राता सब कोई, संकट में पूछत नहीं कोई।


स्वामी एक है आस तुम्हारी, आय हरहुं मम संकट भारी।

धन निर्धन को देत सदा ही, जो कोई जाचें वो फल पाहीं।


अस्तुति केहि विधि करो तिहारी, क्षमहु नाथ अब चूक हमारी।

शंकर हो संकट के नाशन, मंगल कारण विघ्न विनाशन।


योगि यति मुनि ध्यान लगावै, नारद शारद शीश नवावै।

नमो नमो जय नमो शिवायै, सुर ब्रह्मादिक पार न पाए।


जो यह पाठ करे मन लाई, तापर होत हैं शम्भु सहाई।

दुनिया में जो हो अधिकारी, पाठ करे सो पावन हारी।


पुत्रहीन इच्छा कर कोई, निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई।

पंडित त्रयोदशी को लावे, ध्यान पूर्वक होम करावे।


त्रयोदशी व्रत करे हमेशा, तन नहिं ताके रहे कलेशा।

धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे, शंकर सम्मुख पाठ सुनावे।


जन्म जन्म के पाप नसावै, अन्त वास शिवपुर में पावै।

कहै अयोध्या आस तुम्हारी, जानि सकल दुख हरहु हमारी।


॥ दोहा ॥

नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौ चालीसा।

तु मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीशा।

मगसर छठि हेमन्त ऋतु, संवत चौसठ जान।

अस्तुति चालीसा शिवहिं, पूर्ण कीन कल्याण।



॥ इति श्री शिव चालीसा ॥ 


॥ श्री राम चालीसा ॥

श्री रघुवीर भक्त हितकारी, सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी। निशि दिन ध्यान धरै जो कोई, ता सम भक्त और नहिं होई ॥


श्री रघुवीर भक्त हितकारी, सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी।

निशि दिन ध्यान धरै जो कोई, ता सम भक्त और नहिं होई।


ध्यान धरे शिवजी मन माहीं, ब्रह्मा इन्द्र पार नहिं पाहीं।

जय जय जय रघुनाथ कृपाला, सदा करो सन्तन प्रतिपाला।


दूत तुम्हार वीर हनुमाना, जासु प्रभाव तिहूं पुर जाना।

तव भुज दण्ड प्रचण्ड कृपाला, रावण मारि सुरन प्रतिपाला।


तुम अनाथ के नाथ गोसाईं, दीनन के हो सदा सहाई।

ब्रह्मादिक तव पार न पावैं, सदा ईश तुम्हरो यश गावैं।


चारिउ वेद भरत हैं साखी, तुम भक्तन की लज्जा राखी।

गुण गावत शारद मन माहीं, सुरपति ताको पार न पाहीं।


नाम तुम्हार लेत जो कोई, ता सम धन्य और नहिं होई।

राम नाम है अपरम्पारा, चारिउ वेदन जाहि पुकारा।


गणपति नाम तुम्हारो लीन्हौ, तिनको प्रथम पूज्य तुम कीन्हौ।

शेष रटत नित नाम तुम्हारा, महि को भार शीश पर धारा।


फूल समान रहत सो भारा, पाव न कोउ तुम्हारो पारा।

भरत नाम तुम्हरो उर धारो, तासों कबहु न रण में हारो।


नाम शत्रुहन हृदय प्रकाशा, सुमिरत होत शत्रु कर नाशा।

लषन तुम्हारे आज्ञाकारी, सदा करत सन्तन रखवारी।


ताते रण जीते नहिं कोई, युद्ध जुरे यमहूं किन होई।

महालक्ष्मी धर अवतारा, सब विधि करत पाप को छारा।


सीता नाम पुनीता गायो, भुवनेश्वरी प्रभाव दिखायो।

घट सों प्रकट भई सो आई, जाको देखत चन्द्र लजाई।


सो तुमनरे नित पांव पलोटत, नवों निद्धि चरणन में लोटत।

सिद्धि अठारह मंगलकारी, सो तुम पर जावै बलिहारी।


औरहुं जो अनेक प्रभुताई, सो सीतापति तुमहि बनाई।

इच्छा ते कोटिन संसारा, रचत न लागत पल की वारा।


जो तुम्हरे चरणन चित लावै, ताकी मुक्ति अवसि हो जावै।

जय जय जय प्रभु ज्योति स्वरूपा, निर्गुण ब्रह्म अखण्ड अनूपा।


सत्य सत्य व्रत स्वामी, सत्य सनातन अन्तर्यामी।

सत्य भजन तुम्हारो जो गावै, सो निश्चय चारों फल पावै।


सत्य शपथ गौरिपति कीन्हीं, तुमने भक्तिहिं सब सिद्धि दीन्हीं।

सुनहु राम तुम तात हमारे, तुहिं भरत कुल पूज्य प्रचारे।


तुमहिं देव कुल देव हमारे, तुम गुरुदेव प्राण के प्यारे।

जो कुछ हो सो तुम ही राजा, जय जय जय प्रभु राखो लाजा।


राम आत्मा पोषण हारे, जय जय जय दशरथ दुलारे।

ज्ञान हृदय दो ज्ञान स्वरूपा, नमो नमो जय जगपति भूपा।


धन्य धन्य तुम धन्य प्रतापा, नाम तुम्हार हरत संतापा।

सत्य शुद्ध देवन मुख गाया, बजी दुन्दुभी शंख बजाया।


सत्य सत्य तुम सत्य सनातन, तुम ही हो हमारे तन मन धन।

याको पाठ करे जो कोई, ज्ञान प्रकट ताके उर होई।


आवागमन मिटै तिहि केरा, सत्य वचन माने शिव मेरा।

और आस मन में जो होई, मनवांछित फल पावे सोई।


तीनहूं काल ध्यान जो ल्यावैं, तुलसी दर अरु फूल चढ़ावैं।

साग पत्र सो भोग लगावैं, सो नर सकल सिद्धता पावैं।


अन्त समय रघुवर पुर जाई, जहां जन्म हरि भक्त कहाई।

श्री हरिदास कहै अरु गावै, सो बैकुण्ठ धाम को जावै।


॥ दोहा ॥

सात दिवस जो नेम कर, पाठ करे चित लाय।

हरिदास हरि कृपा से, अवसि भक्ति को पाय।

राम चालीसा जो पढे, राम चरण चित लाय।

जो इच्छा मन में करै, सकल सिद्ध हो जाय।



॥ इति श्री राम चालीसा ॥ 



|| श्री हनुमान चालीसा ||

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं,दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं,रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि||


॥दोहा॥

श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार |

बरनौ रघुवर बिमल जसु , जो दायक फल चारि ||


बुद्धिहीन तनु जानि के , सुमिरौ पवन कुमार |

बल बुद्धि विद्या देहु मोहि हरहु कलेश विकार ||


॥चौपाई॥

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर | जय कपीस तिंहु लोक उजागर ||


रामदूत अतुलित बल धामा | अंजनि पुत्र पवन सुत नामा ||2||


महाबीर बिक्रम बजरंगी | कुमति निवार सुमति के संगी ||


कंचन बरन बिराज सुबेसा | कान्हन कुण्डल कुंचित केसा ||4||


हाथ ब्रज औ ध्वजा विराजे | कान्धे मूंज जनेऊ साजे ||


शंकर सुवन केसरी नन्दन | तेज प्रताप महा जग बन्दन ||6||


विद्यावान गुनी अति चातुर | राम काज करिबे को आतुर ||


प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया | रामलखन सीता मन बसिया ||8||


सूक्ष्म रूप धरि सियंहि दिखावा | बिकट रूप धरि लंक जरावा ||


भीम रूप धरि असुर संहारे | रामचन्द्र के काज सवारे ||10||


लाये सजीवन लखन जियाये | श्री रघुबीर हरषि उर लाये ||


रघुपति कीन्हि बहुत बड़ाई | तुम मम प्रिय भरत सम भाई ||12||


सहस बदन तुम्हरो जस गावें | अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावें ||


सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा | नारद सारद सहित अहीसा ||14||


जम कुबेर दिगपाल कहाँ ते | कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ||


तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा | राम मिलाय राज पद दीन्हा ||16||


तुम्हरो मन्त्र विभीषन माना | लंकेश्वर भये सब जग जाना ||


जुग सहस्र जोजन पर भानु | लील्यो ताहि मधुर फल जानु ||18||


प्रभु मुद्रिका मेलि मुख मांहि | जलधि लाँघ गये अचरज नाहिं ||


दुर्गम काज जगत के जेते | सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ||20||


राम दुवारे तुम रखवारे | होत न आज्ञा बिनु पैसारे ||


सब सुख लहे तुम्हारी सरना | तुम रक्षक काहें को डरना ||22||


आपन तेज सम्हारो आपे | तीनों लोक हाँक ते काँपे ||


भूत पिशाच निकट नहीं आवें | महाबीर जब नाम सुनावें ||24||


नासे रोग हरे सब पीरा | जपत निरंतर हनुमत बीरा ||


संकट ते हनुमान छुड़ावें | मन क्रम बचन ध्यान जो लावें ||26||


सब पर राम तपस्वी राजा | तिनके काज सकल तुम साजा ||


और मनोरथ जो कोई लावे | सोई अमित जीवन फल पावे ||28||


चारों जुग परताप तुम्हारा | है परसिद्ध जगत उजियारा ||


साधु संत के तुम रखवारे । असुर निकंदन राम दुलारे ||30||


अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता । अस बर दीन्ह जानकी माता ||


राम रसायन तुम्हरे पासा | सदा रहो रघुपति के दासा ||32||


तुम्हरे भजन राम को पावें | जनम जनम के दुख बिसरावें ||


अन्त काल रघुबर पुर जाई | जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई ||34||


और देवता चित्त न धरई | हनुमत सेई सर्व सुख करई ||


संकट कटे मिटे सब पीरा | जपत निरन्तर हनुमत बलबीरा ||36||


जय जय जय हनुमान गोसाईं | कृपा करो गुरुदेव की नाईं ||


जो सत बार पाठ कर कोई | छूटई बन्दि महासुख होई ||38||


जो यह पाठ पढे हनुमान चालीसा | होय सिद्धि साखी गौरीसा ||


तुलसीदास सदा हरि चेरा | कीजै नाथ हृदय मँह डेरा ||40||


॥दोहा॥

पवन तनय संकट हरन मंगल मूरति रूप |

राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप || 


॥ श्री विष्णु चालीसा ॥

विष्णु सुनिए विनय सेवक की चितलाय । कीरत कुछ वर्णन करूं दीजै ज्ञान बताय ॥...


।। दोहा ।।

विष्णु सुनिए विनय सेवक की चितलाय ।

कीरत कुछ वर्णन करूं दीजै ज्ञान बताय ॥


।। चौपाई ।।

नमो विष्णु भगवान खरारी,कष्ट नशावन अखिल बिहारी ।

प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी,त्रिभुवन फैल रही उजियारी ॥1॥


सुन्दर रूप मनोहर सूरत,सरल स्वभाव मोहनी मूरत ।

तन पर पीताम्बर अति सोहत,बैजन्ती माला मन मोहत ॥2॥


शंख चक्र कर गदा बिराजे,देखत दैत्य असुर दल भाजे ।

सत्य धर्म मद लोभ न गाजे,काम क्रोध मद लोभ न छाजे ॥3॥


सन्तभक्त सज्जन मनरंजन,दनुज असुर दुष्टन दल गंजन ।

सुख उपजाय कष्ट सब भंजन,दोष मिटाय करत जन सज्जन ॥4॥


पाप काट भव सिन्धु उतारण,कष्ट नाशकर भक्त उबारण ।

करत अनेक रूप प्रभु धारण,केवल आप भक्ति के कारण ॥5॥


धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा,तब तुम रूप राम का धारा ।

भार उतार असुर दल मारा,रावण आदिक को संहारा ॥6॥


आप वाराह रूप बनाया,हरण्याक्ष को मार गिराया ।

धर मत्स्य तन सिन्धु बनाया,चौदह रतनन को निकलाया ॥7॥


अमिलख असुरन द्वन्द मचाया,रूप मोहनी आप दिखाया ।

देवन को अमृत पान कराया,असुरन को छवि से बहलाया ॥8॥


कूर्म रूप धर सिन्धु मझाया,मन्द्राचल गिरि तुरत उठाया ।

शंकर का तुम फन्द छुड़ाया,भस्मासुर को रूप दिखाया ॥9॥


वेदन को जब असुर डुबाया,कर प्रबन्ध उन्हें ढुढवाया ।

मोहित बनकर खलहि नचाया,उसही कर से भस्म कराया ॥10॥


असुर जलन्धर अति बलदाई,शंकर से उन कीन्ह लडाई ।

हार पार शिव सकल बनाई,कीन सती से छल खल जाई ॥11॥


सुमिरन कीन तुम्हें शिवरानी,बतलाई सब विपत कहानी ।

तब तुम बने मुनीश्वर ज्ञानी,वृन्दा की सब सुरति भुलानी ॥12॥


देखत तीन दनुज शैतानी,वृन्दा आय तुम्हें लपटानी ।

हो स्पर्श धर्म क्षति मानी,हना असुर उर शिव शैतानी ॥13॥


तुमने ध्रुव प्रहलाद उबारे,हिरणाकुश आदिक खल मारे ।

गणिका और अजामिल तारे,बहुत भक्त भव सिन्धु उतारे ॥14॥


हरहु सकल संताप हमारे,कृपा करहु हरि सिरजन हारे ।

देखहुं मैं निज दरश तुम्हारे,दीन बन्धु भक्तन हितकारे ॥15॥


चहत आपका सेवक दर्शन,करहु दया अपनी मधुसूदन ।

जानूं नहीं योग्य जब पूजन,होय यज्ञ स्तुति अनुमोदन ॥16॥


शीलदया सन्तोष सुलक्षण,विदित नहीं व्रतबोध विलक्षण ।

करहुं आपका किस विधि पूजन,कुमति विलोक होत दुख भीषण ॥17॥


करहुं प्रणाम कौन विधिसुमिरण,कौन भांति मैं करहु समर्पण ।

सुर मुनि करत सदा सेवकाईहर्षित रहत परम गति पाई ॥18॥


दीन दुखिन पर सदा सहाई,निज जन जान लेव अपनाई ।

पाप दोष संताप नशाओ,भव बन्धन से मुक्त कराओ ॥19॥


सुत सम्पति दे सुख उपजाओ,निज चरनन का दास बनाओ ।

निगम सदा ये विनय सुनावै,पढ़ै सुनै सो जन सुख पावै ॥20॥


॥ इति श्री विष्णु चालीसा ॥ 


॥ श्री कृष्ण चालीसा ॥

वंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम। अरुण अधर जनु बिम्ब फल, नयन कमल अभिराम।


॥ दोहा ॥

वंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम। अरुण अधर जनु बिम्ब फल, नयन कमल अभिराम।

पूर्ण इन्द्र अरविन्द मुख, पीताम्बर शुभ साज। जय मनमोहन मदन छवि, कृष्ण चन्द्र महाराज।


॥ चौपाई ॥

जय यदुनन्दन जय जगवन्दन, जय वसुदेव देवकी नन्दन।

जय यशोदा सुत नन्द दुलारे, जय प्रभु भक्तन के दृग तारे।


जय नटनागर नाग नथइया, कृष्ण कन्हैया धेनु चरइया।

पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो, आओ दीनन कष्ट निवारो।


वंशी मधुर अधर धरि टेरी, होवे पूर्ण विनय यह मेरी।

आओ हरि पुनि माखन चाखो, आज लाज भारत की राखो।


गोल कपोल चिबुक अरुणारे, मृदु मुस्कान मोहिनी डारे।

रंजित राजिव नयन विशाला, मोर मुकुट बैजन्ती माला।


कुण्डल श्रवण पीतपट आछे, कटि किंकणी काछन काछे।

नील जलज सुन्दर तनु सोहै, छवि लखि सुर नर मुनि मन मोहै।


मस्तक तिलक अलक घुंघराले, आओ कृष्ण बासुरी वाले।

करि पय पान, पूतनहिं तारयो, अका बका कागा सुर मारयो।


मधुवन जलत अगिन जब ज्वाला, भये शीतल, लखितहिं नन्दलाला।

सुरपति जब ब्रज चढ़यो रिसाई, मूसर धार वारि वर्षाई।


लगत-लगत ब्रज चहन बहायो, गोवर्धन नखधारि बचायो।

लखि यसुदा मन भ्रम अधिकाई, मुख मंह चौदह भुवन दिखाई।


दुष्ट कंस अति उधम मचायो, कोठि कमल जब फूल मंगायो।

नाथि कालियहिं तब तुम लीन्हे, चरणचिन्ह दे निर्भय कीन्हे।


करि गोपिन संग रास विलासा, सबकी पूरण करि अभिलाषा।

केतिक महा असुर संहारियो, कंसहि केस पकडि। दै मारियो


मात-पिता की वंन्दि छुड़ाई, उग्रसेन कहं राज दिलाई।

महि से मृतक छहों सुत लायो, मातु देवकी शोक मिटायो।


भौमासुर मुर दैत्य संहारी, लाये षट दस सहस कुमारी।

दे भमहिं तृणचीर संहारा, जरासिंधु राक्षस कहं मारा।


असुर बकासुर आदिक मारयो, भक्तन के तब कष्ट निवारियो।

दीन सुदामा के दुख टारयो, तंदुल तीन मूठि मुख डारयो।


प्रेम के साग विदुर घर मांगे, दुर्योधन के मेवा त्यागे।

लखी प्रेम की महिमा भारी, ऐसे श्याम दीन हितकारी।


मारथ के पारथ रथ हांके, लिए चक्र करि नहिं बल थाके।

निज गीता के ज्ञान सुनाये, भक्तन हृदय सुधा वर्षाये।


मीरा थी ऐसी मतवाली, विष पी गई बजा कर ताली।

राणा भेजा सांप पिटारी, शालिग्राम बने बनवारी।


निज माया तुम विधिहिं दिखायो, उरते संशय सकल मिटायो।

तव शत निन्दा करि तत्काला, जीवन मुक्त भयो शिशुपाला।


जबहिं द्रोपदी टेर लगाई, दीनानाथ लाज अब जाई।

तुरतहि वसन बने नन्दलाल, बढ़े चीर भये अरि मुह काला।


अस अनाथ के नाथ कन्हैया, डूबत भंवर बचावत नइया।

सुन्दरदास आस उर धारी, दयादृष्टि कीजै बनवारी।


नाथ सकल मम कुमति निवारो, क्षमहुबेगि अपराध हमारो।

खोलो पट अब दर्शन दीजै, बोलो कृष्ण कन्हैया की जय।


॥ दोहा ॥

यह चालीसा कृष्ण का, पाठ करे उर धारि।

अष्ट सिद्धि नवनिद्धि फल, लहै पदारथ चारि।



॥ इति श्री कृष्ण चालीसा ॥ 


|| श्री खाटू श्याम चालीसा ||

श्री गुरु चरण ध्यान धर, सुमिरि सच्चिदानन्द। श्याम चालीसा भजत हूँ, रच चैपाई छन्द||


॥दोहा॥

श्री गुरु चरण ध्यान धर, सुमिरि सच्चिदानन्द।

श्याम चालीसा भजत हूँ, रच चैपाई छन्द ||


॥चौपाई॥

श्याम श्याम भजि बारम्बारा, सहज ही हो भवसागर पारा।

इन सम देव न दूजा कोई, दीन दयालु न दाता होई।


भीमसुपुत्र अहिलवती जाया, कहीं भीम का पौत्र कहाया।

यह सब कथा सही कल्पान्तर, तनिक न मानों इनमें अन्तर।


बर्बरीक विष्णु अवतारा, भक्तन हेतु मनुज तनु धारा।

वसुदेव देवकी प्यारे, यशुमति मैया नन्द दुलारे।


मधुसूदन गोपाल मुरारी, बृजकिशोर गोवर्धन धारी।

सियाराम श्री हरि गोविन्दा, दीनपाल श्री बाल मुकुन्दा।


दामोदर रणछोड़ बिहारी, नाथ द्वारिकाधीश खरारी।

नरहरि रूप प्रहलद प्यारा, खम्भ फारि हिरनाकुश मारा।


राधा वल्लभ रुक्मिणी कंता, गोपी बल्लभ कंस हनंता।

मनमोहन चितचोर कहाये, माखन चोरि चोरि कर खाये।


मुरलीधर यदुपति घनश्याम, कृष्ण पतितपावन अभिराम।

मायापति लक्ष्मीपति ईसा, पुरुषोत्तम केशव जगदीशा।


विश्वपति त्रिभुवन उजियारा, दीनबन्धु भक्तन रखवारा।

प्रभु का भेद कोई न पाया, शेष महेश थके मुनियारा।


नारद शारद ऋषि योगिन्दर, श्याम श्याम सब रटत निरन्तर।

कवि कोविद करि सके न गिनन्ता, नाम अपार अथाह अनन्ता।


हर सृष्टि हर युग में भाई, ले अवतार भक्त सुखदाई।

हृदय माँहि करि देखु विचारा, श्याम भजे तो हो निस्तारा।


कीर पड़ावत गणिका तारी, भीलनी की भक्ति बलिहारी।

सती अहिल्या गौतम नारी, भई श्राप वश शिला दुखारी।


श्याम चरण रच नित लाई, पहुँची पतिलोक में जाई।

अजामिल अरु सदन कसाई, नाम प्रताप परम गति पाई।


जाके श्याम नाम अधारा, सुख लहहि दुख दूर हो सारा।

श्याम सुलोचन है अति सुन्दर, मोर मुकुट सिर तन पीताम्बर।


गल वैजयन्तिमाल सुहाई, छवि अनूप भक्तन मन भाई।

श्याम श्याम सुमिरहुं दिनराती, शाम दुपहरि अरु परभाती।


श्याम सारथी सिके रथ के, रोड़े दूर होय उस पथ के।

श्याम भक्त न कहीं पर हारा, भीर परि तब श्याम पुकारा।


रसना श्याम नाम पी ले, जी ले श्याम नाम के हाले।

संसारी सुख भोग मिलेगा, अन्त श्याम सुख योग मिलेगा।


श्याम प्रभु हैं तन के काले, मन के गोरे भोले भाले।

श्याम संत भक्तन हितकारी, रोग दोष अघ नाशै भारी।


प्रेम सहित जे नाम पुकारा, भक्त लगत श्याम को प्यारा।

खाटू में है मथुरा वासी, पार ब्रह्म पूरण अविनासी।


सुधा तान भरि मुरली बजाई, चहुं दिशि नाना जहाँ सुनि पाई।

वृद्ध बाल जेते नारी नर, मुग्ध भये सुनि वंशी के स्वर।


दौड़ दौड़ पहुँचे सब जाई, खाटू में जहाँ श्याम कन्हाई।

जिसने श्याम स्वरूप निहारा, भव भय से पाया छुटकारा।


॥दोहा॥

श्याम सलोने साँवरे, बर्बरीक तनु धार।

इच्छा पूर्ण भक्त की, करो न लाओ बार || 


॥ श्री शनि चालीसा ॥

जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल। दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाथ निहाल॥


॥ दोहा ॥

जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल।

दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाथ निहाल॥

जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज।

करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज॥


जयति जयति शनिदेव दयाला। करत सदा भक्तन प्रतिपाला॥

चारि भुजा, तनु श्याम विराजै। माथे रतन मुकुट छबि छाजै॥

परम विशाल मनोहर भाला। टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला॥

कुण्डल श्रवण चमाचम चमके। हिय माल मुक्तन मणि दमके॥1॥


कर में गदा त्रिशूल कुठारा। पल बिच करैं अरिहिं संहारा॥

पिंगल, कृष्णो, छाया नन्दन। यम, कोणस्थ, रौद्र, दुखभंजन॥

सौरी, मन्द, शनी, दश नामा। भानु पुत्र पूजहिं सब कामा॥

जा पर प्रभु प्रसन्न ह्वैं जाहीं। रंकहुँ राव करैं क्षण माहीं॥2॥


पर्वतहू तृण होई निहारत। तृणहू को पर्वत करि डारत॥

राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो। कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो॥

बनहूँ में मृग कपट दिखाई। मातु जानकी गई चुराई॥

लखनहिं शक्ति विकल करिडारा। मचिगा दल में हाहाकारा॥3॥


रावण की गतिमति बौराई। रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई॥

दियो कीट करि कंचन लंका। बजि बजरंग बीर की डंका॥

नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा। चित्र मयूर निगलि गै हारा॥

हार नौलखा लाग्यो चोरी। हाथ पैर डरवाय तोरी॥4॥


भारी दशा निकृष्ट दिखायो। तेलिहिं घर कोल्हू चलवायो॥

विनय राग दीपक महं कीन्हयों। तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों॥

हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी। आपहुं भरे डोम घर पानी॥

तैसे नल पर दशा सिरानी। भूंजीमीन कूद गई पानी॥5॥


श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई। पारवती को सती कराई॥

तनिक विलोकत ही करि रीसा। नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा॥

पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी। बची द्रौपदी होति उघारी॥

कौरव के भी गति मति मारयो। युद्ध महाभारत करि डारयो॥6॥


रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला। लेकर कूदि परयो पाताला॥

शेष देवलखि विनती लाई। रवि को मुख ते दियो छुड़ाई॥

वाहन प्रभु के सात सजाना। जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना॥

जम्बुक सिंह आदि नख धारी।सो फल ज्योतिष कहत पुकारी॥7॥


गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं। हय ते सुख सम्पति उपजावैं॥

गर्दभ हानि करै बहु काजा। सिंह सिद्धकर राज समाजा॥

जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै। मृग दे कष्ट प्राण संहारै॥

जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी। चोरी आदि होय डर भारी॥8॥


तैसहि चारि चरण यह नामा। स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा॥

लौह चरण पर जब प्रभु आवैं। धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं॥

समता ताम्र रजत शुभकारी। स्वर्ण सर्व सर्व सुख मंगल भारी॥

जो यह शनि चरित्र नित गावै। कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै॥9॥


अद्भुत नाथ दिखावैं लीला। करैं शत्रु के नशि बलि ढीला॥

जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई। विधिवत शनि ग्रह शांति कराई॥

पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत। दीप दान दै बहु सुख पावत॥

कहत राम सुन्दर प्रभु दासा। शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा॥10॥


॥ दोहा ॥

पाठ शनिश्चर देव को, की हों भक्त तैयार।

करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार॥


॥ इति श्री शनि चालीसा ॥ 


॥ श्री गिरिराज चालीसा ॥

बन्दहुँ वीणा वादिनी, धरि गणपति को ध्यान। महाशक्ति राधा, सहित कृष्ण करौ कल्याण।


॥ दोहा ॥

बन्दहुँ वीणा वादिनी, धरि गणपति को ध्यान।

महाशक्ति राधा, सहित कृष्ण करौ कल्याण।

सुमिरन करि सब देवगण, गुरु पितु बारम्बार।

बरनौ श्रीगिरिराज यश, निज मति के अनुसार।


॥ चौपाई ॥

जय हो जय बंदित गिरिराजा, ब्रज मण्डल के श्री महाराजा।

विष्णु रूप तुम हो अवतारी, सुन्दरता पै जग बलिहारी।

स्वर्ण शिखर अति शोभा पावें, सुर मुनि गण दरशन कूं आवें।

शांत कंदरा स्वर्ग समाना, जहाँ तपस्वी धरते ध्याना।


द्रोणगिरि के तुम युवराजा, भक्तन के साधौ हौ काजा।

मुनि पुलस्त्य जी के मन भाये, जोर विनय कर तुम कूं लाये।

मुनिवर संघ जब ब्रज में आये, लखि ब्रजभूमि यहाँ ठहराये।

विष्णु धाम गौलोक सुहावन, यमुना गोवर्धन वृन्दावन।


देख देव मन में ललचाये, बास करन बहुत रूप बनाये।

कोउ बानर कोउ मृग के रूपा, कोउ वृक्ष कोउ लता स्वरूपा।

आनन्द लें गोलोक धाम के, परम उपासक रूप नाम के।

द्वापर अंत भये अवतारी, कृष्णचन्द्र आनन्द मुरारी।


महिमा तुम्हरी कृष्ण बखानी, पूजा करिबे की मन ठानी।

ब्रजवासी सब के लिये बुलाई, गोवर्धन पूजा करवाई।

पूजन कूं व्यंजन बनवाये, ब्रजवासी घर घर ते लाये।

ग्वाल बाल मिलि पूजा कीनी, सहस भुजा तुमने कर लीनी।


स्वयं प्रकट हो कृष्ण पूजा में, मांग मांग के भोजन पावें।

लखि नर नारि मन हरषावें, जै जै जै गिरिवर गुण गावें।

देवराज मन में रिसियाए, नष्ट करन ब्रज मेघ बुलाए।

छाया कर ब्रज लियौ बचाई, एकउ बूंद न नीचे आई।


सात दिवस भई बरसा भारी, थके मेघ भारी जल धारी।

कृष्णचन्द्र ने नख पै धारे, नमो नमो ब्रज के रखवारे।

करि अभिमान थके सुरसाई, क्षमा मांग पुनि अस्तुति गाई।

त्राहि माम मैं शरण तिहारी, क्षमा करो प्रभु चूक हमारी।


बार बार बिनती अति कीनी, सात कोस परिकम्मा दीनी।

संग सुरभि ऐरावत लाये, हाथ जोड़ कर भेंट गहाए।

अभय दान पा इन्द्र सिहाये, करि प्रणाम निज लोक सिधाये।

जो यह कथा सुनैं चित लावें, अन्त समय सुरपति पद पावैं।


गोवर्धन है नाम तिहारौ, करते भक्तन कौ निस्तारौ।

जो नर तुम्हरे दर्शन पावें, तिनके दुख दूर ह्वै जावे।

कुण्डन में जो करें आचमन, धन्य धन्य वह मानव जीवन।

मानसी गंगा में जो नहावे, सीधे स्वर्ग लोक कूं जावें।


दूध चढ़ा जो भोग लगावें, आधि व्याधि तेहि पास न आवें।

जल फल तुलसी पत्र चढ़ावें, मन वांछित फल निश्चय पावें।

जो नर देत दूध की धारा, भरौ रहे ताकौ भण्डारा।

करें जागरण जो नर कोई, दुख दरिद्र भय ताहि न होई।


श्याम शिलामय निज जन त्राता, भक्ति मुक्ति सरबस के दाता।

पुत्रहीन जो तुम कूं ध्यावें, ताकूं पुत्र प्राप्ति ह्वै जावें।

दण्डौती परिकम्मा करहीं, ते सहजहिं भवसागर तरहीं।

कलि में तुम सक देव न दूजा, सुर नर मुनि सब करते पूजा।


॥ दोहा ॥

जो यह चालीसा पढ़ै, सुनै शुद्ध चित्त लाय।

सत्य सत्य यह सत्य है, गिरिवर करै सहाय।

क्षमा करहुँ अपराध मम, त्राहि माम् गिरिराज।

श्याम बिहारी शरण में, गोवर्धन महाराज।


॥ इति श्री गिरिराज चालीसा ॥ 


d

॥ श्री भैरव चालीसा ॥

श्री भैरव संकट हरन, मंगल करन कृपाल। करहु दया जि दास पे, निशिदिन दीनदयाल॥


॥ दोहा॥

श्री भैरव संकट हरन, मंगल करन कृपाल।

करहु दया जि दास पे, निशिदिन दीनदयाल॥


॥ चौपाई ॥

शजय डमरूधर नयन विशाला, श्यामवर्ण, वपु महाकराला।

जय त्रिशूलधर जय डमरूधर, काशी कोतवाल, संकट हर।


जय गिरिजासुत परम कृपाला, संकट हरण हरहुं भ्रमजाला।

जयति बटुक भैरव भयहारी, जयति काल भैरव बलधारी।


अष्ट रूप तुम्हरे सब गाये, सकल एक ते एक सिवाये।

शिवस्वरूप शिव के अनुगामी, गणाधीश तुम सब के स्वामी।


जटाजूट पर मुकुट सुहावै, भालचन्द्र अति शोभा पावै।

कटि करधनी घुंघरू बाजै, दर्शन करत सकल भय भाजै।


कर त्रिशूल डमरू अति सुन्दर, मोरपंख को चंवर मनोहर।

खप्पर, रूप चतुर्भुज नाथ बखाना बलवाना लिये खड्ग।


वाहन श्वान सदा सुखरासी, तुम अनन्त प्रभु तुम अविनाशी।

जय जय जय भैरव भय भंजन, जय कृपालु भक्तन मनरंजन।


नयन विशाल लाल अति भारी, रक्तवर्ण तुम अहहु पुरारी।

बं बं बं बोलत दिनराती, शिव कहं भजहुं असुर आराती।


एक रूप तुम शम्भु कहाये, दूजे भैरव रूप बनाये।

सेवक तुमहिं तुमहिं प्रभु स्वामी, सब जग के तुम अन्तर्यामी।


रक्तवर्ण वपु अहहि तुम्हारा, श्यामवर्ण कहुं होई प्रचारा।

श्वेतवर्ण पुनि कहा बखानी, तीनि वर्ण तुम्हरे गुणखानी।


तीन नयन प्रभु परम सुहावहिं, सुर नर मुनि सब ध्यान लगावहिं।

व्याघ्र चर्मधर तुम जग स्वामी, प्रेतनाथ तुम पूर्ण अकामी।


चक्रनाथ नकुलेश प्रचण्डा, निमिष दिगम्बर कीरति चण्डा।

क्रोधवत्स भूतेश कालधर, चक्रतुण्ड दशबाहु व्यालधर।


अहहिं कोटि प्रभु नाम तुम्हारे, जयत सदा मेटत दुख भारे।

चैसठ योगिनी नाचहिं संगा, कोधवान तुम अति रणरंगा।


भूतनाथ तुम परम पुनीता, तुम भविष्य तुम अहहू अतीता।

वर्तमान तुम्हारो शुचि रूपा, कालजयी तुम परम अनूपा।


ऐलादी को संकट टार्यो, सदा भक्त को कारज सारयो।

कालीपुत्र कहावहु नाथा, तव चरणन नावहुं नित माथा।


श्री क्रोधेश कृपा विस्तारहु, दीन जानि मोहि पार उतारहु।

भवसागर बूढत दिन-राती, होहु कृपालु दुष्ट आराती।


सेवक जानि कृपा प्रभु कीजै, मोहिं भगति अपनी अब दीजै।

करहुं सदा भैरव की सेवा, तुम समान दूजो को देवा।


अश्वनाथ तुम परम मनोहर, दुष्टन कहं प्रभु अहहु भयंकर।

तम्हरो दास जहां जो होई, ताकहं संकट परै न कोई।


हरहु नाथ तुम जन की पीरा, तुम समान प्रभु को बलवीरा।

सब अपराध क्षमा करि दीजै, दीन जानि आपुन मोहिं कीजै।


जो यह पाठ करे चालीसा, तापै कृपा करहुं जगदीशा।


॥ दोहा ॥

जय भैरव जय भूतपति जय जय जय सुखकंद।

करहु कृपा नित दास पे, देहुं सदा आनन्द ..



॥ श्री रामदेव चालीसा ॥

श्री गुरु पद नमन करि, गिरा गनेश मनाय। कथूं रामदेव विमल यश, सुने पाप विनशाय ..


॥ दोहा ॥

श्री गुरु पद नमन करि, गिरा गनेश मनाय।

कथूं रामदेव विमल यश, सुने पाप विनशाय ..

द्वार केश से आय कर, लिया मनुज अवतार।

अजमल गेह बधावणा, जग में जय जयकार ..


॥ चौपाई ॥

जय जय रामदेव सुर राया, अजमल पुत्र अनोखी माया।

विष्णु रूप सुर नर के स्वामी, परम प्रतापी अन्तर्यामी।


ले अवतार अवनि पर आये, तंवर वंश अवतंश कहाये।

संज जनों के कारज सारे, दानव दैत्य दुष्ट संहारे।


परच्या प्रथम पिता को दीन्हा, दूश परीण्डा माही कीन्हा।

कुमकुम पद पोली दर्शाये, ज्योंही प्रभु पलने प्रगटाये।


परचा दूजा जननी पाया, दूध उफणता चरा उठाया।

परचा तीजा पुरजन पाया, चिथड़ों का घोड़ा ही साया।


परच्या चैथा भैरव मारा, भक्त जनों का कष्ट निवारा।

पंचम परच्या रतना पाया, पुंगल जा प्रभु फंद छुड़ाया।


परच्या छठा विजयसिंह पाया, जला नगर शरणागत आया।

परच्या सप्तम सुगना पाया, मुवा पुत्र हंसता भग आया।


परच्या अष्टम बौहित पाया, जा परदेश द्रव्य बहु लाया।

भंवर डूबती नाव उबारी, प्रगट टेर पहुँचे अवतारी।


नवमां परच्या वीरम पाया, बनियां आ जब हाल सुनाया।

दसवां परच्या पा बिनजारा, मिश्री बनी नमक सब खारा।


परच्या ग्यारह किरपा थारी, नमक हुआ मिश्री फिर सारी।

परच्या द्वादश ठोकर मारी, निकलंग नाड़ी सिरजी प्यारी।


परच्या तेरहवां पीर परी पधारया, ल्याय कटोरा कारज सारा।

चैदहवां परच्या जाभो पाया, निजसर जल खारा करवाया।


परच्या पन्द्रह फिर बतलाया, राम सरोवर प्रभु खुदवाया।

परच्या सोलह हरबू पाया, दर्श पाय अतिशय हरषाया।


परच्या सत्रह हर जी पाया, दूध थणा बकरया के आया।

सुखी नाडी पानी कीन्हों, आत्म ज्ञान हरजी ने दीन्हों।


परच्या अठारहवां हाकिम पाया, सूते को धरती लुढ़काया।

परच्या उन्नीसवां दल जी पाया, पुत्र पाया मन में हरषाया।


परच्या बीसवां पाया सेठाणी, आये प्रभु सुन गदगद वाणी।

तुरंत सेठ सरजीवण कीन्हा, उक्त उजागर अभय वर दीन्हा।


परच्या इक्कीसवां चोर जो पाया, हो अन्धा करनी फल पाया।

परच्या बाईसवां मिर्जो चीहां, सातों तवा बेध प्रभु दीन्हां।


परच्या तेईसवां बादशाह पाया, फेर भक्त को नहीं सताया।

परच्या चैबीसवां बख्शी पाया, मुवा पुत्र पल में उठ धाया।


जब-जब जिसने सुमरण कीन्हां, तब-तब आ तुम दर्शन दीन्हां।

भक्त टेर सुन आतुर धाते, चढ़ लीले पर जल्दी आते।


जो जन प्रभु की लीला गावें, मनवांछित कारज फल पावें।

यह चालीसा सुने सुनावे, ताके कष्ट सकल कट जावे।


जय जय जय प्रभु लीला धारी, तेरी महिमा अपरम्पारी।

मैं मूरख क्या गुण तव गाऊँ, कहाँ बुद्धि शारद सी लाऊँ।


नहीं बुद्धि बल घट लवलेशा, मती अनुसार रची चालीसा।

दास सभी शरण में तेरी, रखियों प्रभु लज्जा मेरी।



॥ इति श्री रामदेव चालीसा ॥ 


॥ श्री सूर्य चालीसा ॥

कनक बदन कुण्डल मकर, मुक्ता माला अंग। पद्मासन स्थित ध्याइये, शंख चक्र के संग ..


॥ दोहा ॥

कनक बदन कुण्डल मकर, मुक्ता माला अंग। पद्मासन स्थित ध्याइये, शंख चक्र के संग ..


॥ चौपाई ॥

जय सविता जय जयति दिवाकर, सहस्रांशु सप्ताश्व तिमिरहर।

भानु, पतंग, मरीची, भास्कर, सविता, हंस, सुनूर, विभाकर।


विवस्वान, आदित्य, विकर्तन, मार्तण्ड, हरिरूप, विरोचन।

अम्बरमणि, खग, रवि कहलाते, वेद हिरण्यगर्भ कह गाते।


सहस्रांशु, प्रद्योतन, कहि कहि, मुनिगन होत प्रसन्न मोदलहि।

अरुण सदृश सारथी मनोहर, हांकत हय साता चढि़ रथ पर।


मंडल की महिमा अति न्यारी, तेज रूप केरी बलिहारी।

उच्चैश्रवा सदृश हय जोते, देखि पुरन्दर लज्जित होते।


मित्र, मरीचि, भानु, अरुण, भास्कर, सविता,

सूर्य, अर्क, खग, कलिहर, पूषा, रवि,


आदित्य, नाम लै, हिरण्यगर्भाय नमः कहिकै।

द्वादस नाम प्रेम सो गावैं, मस्तक बारह बार नवावै।


चार पदारथ सो जन पावै, दुख दारिद्र अघ पुंज नसावै।

नमस्कार को चमत्कार यह, विधि हरिहर कौ कृपासार यह।


सेवै भानु तुमहिं मन लाई, अष्टसिद्धि नवनिधि तेहिं पाई।

बारह नाम उच्चारन करते, सहस जनम के पातक टरते।


उपाख्यान जो करते तवजन, रिपु सों जमलहते सोतेहि छन।

छन सुत जुत परिवार बढ़तु है, प्रबलमोह को फंद कटतु है।


अर्क शीश को रक्षा करते, रवि ललाट पर नित्य बिहरते।

सूर्य नेत्र पर नित्य विराजत, कर्ण देश पर दिनकर छाजत।


भानु नासिका वास करहु नित, भास्कर करत सदा मुख कौ हित।

ओठ रहैं पर्जन्य हमारे, रसना बीच तीक्ष्ण बस प्यारे।


कंठ सुवर्ण रेत की शोभा, तिग्मतेजसः कांधे लोभा।

पूषा बाहु मित्र पीठहिं पर, त्वष्टा-वरुण रहम ​​सुउष्णकर।


युगल हाथ पर रक्षा कारन, भानुमान उरसर्मं सुउदरचन।

बसत नाभि आदित्य मनोहर, कटि मंह हंस, रहत मन मुदभर।


जंघा गोपति, सविता बासा, गुप्त दिवाकर करत हुलासा।

विवस्वान पद की रखवारी, बाहर बसते नित तम हारी।


सहस्रांशु, सर्वांग सम्हारै, रक्षा कवच विचित्र विचारे।

अस जोजजन अपने न माहीं, भय जग बीज करहुं तेहि नाहीं।


दरिद्र कुष्ट तेहिं कबहुं न व्यापै, जोजन याको मन मंह जापै।

अंधकार जग का जो हरता, नव प्रकाश से आनन्द भरता।


ग्रह गन ग्रसि न मिटावत जाही, कोटि बार मैं प्रनवौं ताही।

मन्द सदृश सुतजग में जाके, धर्मराज सम अद्भुत बांके।


धन्य-धन्य तुम दिनमनि देवा, किया करत सुरमुनि नर सेवा।

भक्ति भावयुत पूर्ण नियम सों, दूर हटत सो भव के भ्रम सों।


परम धन्य सो नर तनधारी, हैं प्रसन्न जेहि पर तम हारी।

अरुण माघ महं सूर्य फाल्गुन, मध वेदांगनाम रवि उदय।


भानु उदय वैसाख गिनावै, ज्येष्ठ इन्द्र आषाढ़ रवि गावै।

यम भादों आश्विन हिमरेता, कातिक होत दिवाकर नेता।


अगहन भिन्न विष्णु हैं पूसहिं, पुरुष नाम रवि हैं मलमासहिं।


॥ दोहा ॥

भानु चालीसा प्रेम युत, गावहिं जे नर नित्य।

सुख सम्पत्ति लहै विविध, होंहि सदा कृतकृत्य ..



॥ इति श्री सूर्य चालीसा ॥ 


॥ श्री परशुराम चालीसा ॥

श्री गुरु चरण सरोज छवि, निज मन मन्दिर धारि। सुमरि गजानन शारदा, गहि आशिष त्रिपुरारि .. ॥


॥ दोहा ॥

श्री गुरु चरण सरोज छवि, निज मन मन्दिर धारि।

सुमरि गजानन शारदा, गहि आशिष त्रिपुरारि ..

बुद्धिहीन जन जानिये, अवगुणों का भण्डार।

बरणौं परशुराम सुयश, निज मति के अनुसार ..


॥ चौपाई ॥

जय प्रभु परशुराम सुख सागर, जय मुनीश गुण ज्ञान दिवाकर।

भृगुकुल मुकुट बिकट रणधीरा, क्षत्रिय तेज मुख संत शरीरा।

जमदग्नी सुत रेणुका जाया, तेज प्रताप सकल जग छाया।

मास बैसाख सित पच्छ उदारा, तृतीया पुनर्वसु मनुहारा।


प्रहर प्रथम निशा शीत न घामा, तिथि प्रदोष व्यापि सुखधामा।

तब ऋषि कुटीर रुदन शिशु कीन्हा, रेणुका कोखि जनम हरि लीन्हा।

निज घर उच्च ग्रह छः ठाढ़े, मिथुन राशि राहु सुख गाढ़े।

तेज-ज्ञान मिल नर तनु धारा, जमदग्नी घर ब्रह्म अवतारा।


धरा राम शिशु पावन नामा, नाम जपत लग लह विश्रामा।

भाल त्रिपुण्ड जटा सिर सुन्दर, कांधे मूंज जनेऊ मनहर।

मंजु मेखला कठि मृगछाला, रुद्र माला बर वक्ष विशाला।

पीत बसन सुन्दर तुन सोहें, कंध तुरीण धनुष मन मोहें।


वेद-पुराण-श्रुति-स्मृति ज्ञाता, क्रोध रूप तुम जग विख्याता।

दायें हाथ श्रीपरसु उठावा, वेद-संहिता बायें सुहावा।

विद्यावान गुण ज्ञान अपारा, शास्त्र-शस्त्र दोउ पर अधिकारा।

भुवन चारिदस अरु नवखंडा, चहुं दिशि सुयश प्रताप प्रचंडा।


एक बार गणपति के संगा, जूझे भृगुकुल कमल पतंगा।

दांत तोड़ रण कीन्ह विरामा, एक दन्द गणपति भयो नामा।

कार्तवीर्य अर्जुन भूपाला, सहस्रबाहु दुर्जन विकराला।

सुरगऊ लखि जमदग्नी पाही, रहिहहुं निज घर ठानि मन माहीं।


मिली न मांगि तब कीन्ह लड़ाई, भयो पराजित जगत हंसाई।

तन खल हृदय भई रिस गाढ़ी, रिपुता मुनि सौं अतिसय बाढ़ी।

ऋषिवर रहे ध्यान लवलीना, निन्ह पर शक्तिघात नृप कीन्हा।

लगत शक्ति जमदग्नी निपाता, मनहुं क्षत्रिकुल बाम विधाता।


पितु-बध मातु-रुदन सुनि भारा, भा अति क्रोध मन शोक अपारा।

कर गहि तीक्षण पराु कराला, दुष्ट हनन कीन्हेउ तत्काला।

क्षत्रिय रुधिर पितु तर्पण कीन्हा, पितु-बध प्रतिशोध सुत लीन्हा।

इक्कीस बार भू क्षत्रिय बिहीनी, छीन धरा बिप्रन्ह कहँ दीनी।


जुग त्रेता कर चरित सुहाई, शिव-धनु भंग कीन्ह रघुराई।

गुरु धनु भंजक रिपु करि जाना, तब समूल नाश ताहि ठाना।

कर जोरि तब राम रघुराई, विनय कीन्ही पुनि शक्ति दिखाई।

भीष्म द्रोण कर्ण बलवन्ता, भये शिष्य द्वापर महँ अनन्ता।


शस्त्र विद्या देह सुयश कमावा, गुरु प्रताप दिगन्त फिरावा।

चारों युग तव महिमा गाई, सुर मुनि मनुज दनुज समुदाई।

दे कश्यप सों संपदा भाई, तप कीन्हा महेन्द्र गिरि जाई।

अब लौं लीन समाधि नाथा, सकल लोक नावइ नित माथा।


चारों वर्ण एक सम जाना, समदर्शी प्रभु तुम भगवाना।

लहहिं चारि फल शरण तुम्हारी, देव दनुज नर भूप भिखारी।

जो यह पढ़ै श्री परशु चालीसा, तिन्ह अनुकूल सदा गौरीसा।

पूर्णेन्दु निसि बासर स्वामी, बसहुं हृदय प्रभु अन्तरयामी।


॥ दोहा ॥

परशुराम को चारु चरित, मेटत सकल अज्ञान।

शरण पड़े को देत प्रभु, सदा सुयश सम्मान ..


॥ श्लोक ॥

भृगुदेव कुलं भानुं, सहस्रबाहुर्मर्दनम्।

रेणुका नयनानंदं, परशुं वन्दे विप्रधनम् ..



॥ इति श्री परशुराम चालीसा ॥  


॥ श्री साई चालीसा ॥

पहले साईं के चरणों में, अपना शीश नवाऊँ मैं। कैसे शिर्डी साईं आए सारा हाल सुनाऊँ मैं।

पहले साईं के चरणों में, अपना शीश नवाऊँ मैं।

कैसे शिर्डी साईं आए सारा हाल सुनाऊँ मैं।

कौन हैं माता, पिता कौन हैं, यह न किसी ने भी जाना।

कहाँ जनम साईं ने धारा, प्रश्न पहेली सा रहा बना।

कोई कहे अयोध्या के, ये रामचन्द्र भगवान हैं।

कोई कहता साईं बाबा, पवन-पुत्र हनुमान हैं।

कोई कहता है मंगल मूर्ति, श्री गजानन। हैं साईं

कोई कहता गोकुल मोहन देवकी नन्दन हैं साईं।


शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते।

कोई कहे अवतार दत्त का, पूजा साई की करते।

कुछ भी मानो उनको तुम, पर साईं हैं सच्चे भगवान।

बड़े दयालु, दीनबन्धु, कितनों को दिया जीवन दान।


कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊँगा मैं बात।

किसी भाग्यशाली की, शिर्डी में आई थी बारात।

आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर।

आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिर्डी किया नगर।


कई दिनों तक रहा भटकता, भिक्षा माँगी उसने दर-दर।

और दिखायी ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर।

जैसे-जैसे उमर बढ़ी, बढ़ती गई वेसे ही शान।

घर-घर होने लगा नगर में, साईं बाबा का गुणगान।


दिन दिगन्त में लगा गूँजने, फिर तो साईंजी का नाम।

दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम।

बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूँ निर्धन।

दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुख के बन्धन।


कभी किसी ने माँगी भिक्षा, दो बाबा मुझको सन्तान।

एवमस्तु तब कहकर साईं, देते थे उसको वरदान।

स्वयं दुखी बाबा हो जाते, दीन-दुखी जन का लख हाल।

अन्तः करन श्री साईं का, सागर जैसा रहा विशाल।


भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत बड़ा धनवान।

माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही सन्तान।

लगा मनाने साईं नाथ को, बाबा मुझ पर दया करो।

झंझा से झंकृत नैया को, तुम ही मेरी पार करो।


कुलदीपक के बिना अंधेरा, छाया हुआ है घर में मेरे।

इसलिए आया हूँ बाबा, होकर शरणागत तेरे।

कुलदीपक के ही अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया।

आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया।


दे-दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूँगा जीवन भर।

और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर।

अनुनय विनय बहुत की उसने, चरणों में धरकर के शीश।

तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भक्त को यह आशीष।


अल्ला भला करेगा तेरा, पुत्र जन्म हो तेरे घर।

कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर।

अब तक नहीं किसी ने पाया, साईं की कृपा का पार।

पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार।


तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार।

साँच को आँच नहीं है कोई, सदा, झूठ की होती हार।

मैं हूँ सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास।

साईं जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस।


मेरा भी दिन था इक ऐसा, मिलती नहीं मुझे थी रोटी।

तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्ही सी लंगोटी।

सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा था।

दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नि बरसाता था।


धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था।

बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था।

ऐसे में इक मित्र मिला जो, परम भक्त साईं का था।

जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझ सा था।


बाबा के दर्शनों की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार।

साईं जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार।

पावन शिर्डी नगर में जाकर, देखी मतवाली मूरति।

धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साईं की मुरति।


जब से किए हैं दर्शन हमने, दुख सारा काफूर हो गया।

संकट सारे मिटे और, विपदाओं का हो अन्त गया।

मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको सब बाबा से।

प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में, हम साईं की आज्ञा से।


बाबा ने सम्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में।

इसका ही सम्बल ले मैं, हँसता जाऊँगा जीवन में।

साईं की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ।

लगता, जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ।


काशीराम बाबा का भक्त, इस शिर्डी में रहता था।

मैं साईं का, साईं मेरा, वह दुनिया से कहता था।

सिलकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम नगर बाजारों में।

झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साईं की झंकारों में।


स्तब्ध निशा थी, थे सोये, रजनी अंचल में चाँद सितारे।

नहीं सूझता रहा हाथ हो हाथ,।

वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय! हाट के काशी।

विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन, आता था वह एकाकी।


घेर राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी।

मारो काटो लूट लो इसको, इसकी ही ध्वनि पड़ी सुनाई।

लूट पीटकर उसे वहाँ से, कुटिल गये चम्पत हो।

आघातों से मर्माहत हो, उसने दी थी संज्ञा खो।


बहुत देर तक पड़ा रहा वह, वहीं उसी हालत में।

जाने कब कुछ होश हो उठा, उसको किसी पलक में।

अनजाने ही उसके मुँह से, निकल पड़ा था साईं।

जिसकी प्रतिध्वनि शिर्डी में, बाबा को पड़ी सुनाई।


क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो।

लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सम्मुख हो।

उन्मादी से इधर उधर तब, बाबा लगे भटकने।

सन्मुख चीजें जो भी आईं उनको लगे पटकने।


और धधकते अंगारों में, बाबा ने कर डाला।

हुए सशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डव नृत्य निराला।

समझ गये सब लोग कि कोई, भक्त पड़ा संकट में।

क्षुभित खड़े थे सभी वहाँ पर, पड़े हुए विस्मय में।


उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल हैं।

उसकी ही पीड़ी से पीडि़त, उनका अन्तस्तल है।

इतने में ही विधि ने, अपनी विचित्रता दिखलाई।

लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई।


लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गाड़ी एक वहाँ आई।

सन्मुख अपने देखा भक्त को, साईं की आँखें भर आई।

शान्त, धीर, गंभीर सिन्धु सा, बाबा का अन्तस्तल।

आज न जाने क्यों रह-रह, हो जाता था चंचल।


आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी।

और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी।

आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी।

उसके ही दर्शन की खातिर, थे उमड़े नगर-निवासी।


जब भी और जहाँ भी कोई, भक्त पड़े संकट में।

उसकी रक्षा करने बाबा, जाते हैं पलभर में।

युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी।

आपदग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अन्तर्यामी।


भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साईं।

जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिख ईसाई।

भेद-भाव मन्दिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला।

राम रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला।


घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना कोना।

मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना।

चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी।

और नीम के कड़ुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी।


सच को स्नेह दिया साईं ने, सबको अतुल प्यार किया।

जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया।

ऐसे स्नेह शील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे।

पर्वत जैसा दुख क्यों न हो, पलभर में वह दूर टरे


साईं जैसा दाता, अरे कभी नहीं देखा कोई।

जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई।

तन में साईं, मन में साईं, साईं-साईं भजा करो।

अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो।


जब तू अपनी सुधियाँ तजकर, बाबा की सुधि किया करेगा।

और रात-दिन बाबा, बाबा, बाबा ही तू रटा करेगा।

तो बाबा को अरे! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी।

तेरी हर इच्छा बाबा के पूरी ही करनी होगी।


जंगल जंगल भटक न पागल, और ढूँढ़ने बाबा को।

एक जगह केवल शिर्डी में, तू पायेगा बाबा को।

धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया।

दुख में, सुख में प्रहर आठ हो, साईं का हो गुण गाया।


गिरें संकटों के पर्वत चाहे, या बिजली ही टूट पड़े।

साईं का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े।

इस बूढ़े की सुन करामात, तुम हो जावोगे हैरान।

दंग रह गए सुन कर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान।


एक बार शिर्डी में साधु, ढोंगी था कोई आया।

भोली-भाली नगर निवासी, जनता को था भरमाया।

जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वहीं भाषण।

कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन।


औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति।

इसके सेवन करने से ही, हो जाती है दुख से मुक्ति।

अगर मुक्त होना चाहो तुम, संकट से, बीमारी से।

तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से।


लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियाँ हैं न्यारी।

यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अतिशय भारी।

जो है संततिहीन यहाँ यदि, मेरी औषधि को खाये।

पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे और वह मुँह माँगा फल पाये।


औषध मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछतायेगा।

मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहाँ आ पायेगा।

दुनिया दो दिन का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो।

गर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो।


हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी।

प्रमुदित वह भी मन ही मन था, लख लोगों की नादानी।

खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक।

सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक।


हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ।

या शिर्डी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ।

मेरे रहते भोली-भाली, शिर्डी की जनता को।

कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को


पलभर में ही ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को।

महानाश के महागर्त में, पहुँचा दूँ जीवन भर को।

तनिक मिल आभास मदारी, क्रूर, कुटिल, अन्यायी को।

काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साईं को।


पलभर में सब खेल बन्द कर, भागा सिर पर रख कर पैर।

सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है क्या अब खैर।

सच है साईं जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में।

अंश ईश का साईं बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में।


स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर।

बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर।

वही जीत लेता है जगती के, जन जन का अन्तस्तल।

उसकी एक उदासी ही जग को, कर देती है विह्वल।


जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ हो जाता है।

उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी हो जाता है।

पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के।

दूर भगा देता दुनिया के दानव को क्षण भर में।


स्नेह सुधा की धार बरसने, लगती है दुनिया में।

गले परस्पर मिलने लगते, जन-जन हैं आपस में।

ऐसे ही अवतारी साईं, मुत्युलोक में आकर।

समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर।


नाम द्वारका मस्जिद का, रक्खा शिर्डी में साईं ने।

पाप, ताप, सन्ताप मिटाया, जो कुछ पाया साईं ने।

सदा याद में मस्त रा मकी, बैठे रहते थे साईं।

पहर आठ ही राम नाम का, भजते रहते थे साईं।


सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान।

सदा यास के भूखे साईं की खातिर थे सभी समान।

स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन को कुछ दे जाते थे।

बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे।


कभी कभी मन बहलाने को, बाब बाग में जाते थे।

प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे।

रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मन्द-मन्द हिल-डुल करके।

बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे।


ऐसी सुमधुर बेला में भी, दुख आपद विपदा के मारे।

अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे।

सुनकर जिनकी करुण कथा को, नयन कमल भर आते थे।

दे विभूति हर व्यथा, शान्ति, उनके उर में भर देते थे।


जाने क्या अद्भुत शक्ति, उस विभूति में होती थी।

जो धारण करते मस्तक पर, दुख सारा हर लेती थी।

धन्य मनुज वे साक्षात दर्शन, जो बाबा साईं के पाये।

धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाये।


काश निर्भय तुमको भी, साक्षात साईं मिल जाता।

बरसों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता।

गर पकड़ता मैं चरण श्री के नहीं छोड़ता उम्र भर।

मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साईं मुझ पर।

॥ इति श्री साई चालीसा ॥ 


॥ श्री नवग्रह चालीसा ॥

श्री गणपति गुरु पद कमल, प्रेम सहित सिरनाय। नवग्रह चालीसा कहत, शारद होत सहाय।।॥


॥ चौपाई ॥

श्री गणपति गुरु पद कमल, प्रेम सहित सिरनाय।

नवग्रह चालीसा कहत, शारद होत सहाय।।

जय जय रवि शशि सोम बुध जय गुरु भृगु शनि राज।

जयति राहु अरु केतु ग्रह करहुं अनुग्रह आज।।


॥ श्री सूर्य स्तुति ॥

प्रथमहि रवि कहं नावौं माथा, करहुं कृपा जनि जानि अनाथा।

हे आदित्य दिवाकर भानू, मैं मति मन्द महा अज्ञानू।

अब निज जन कहं हरहु कलेषा, दिनकर द्वादश रूप दिनेशा।

नमो भास्कर सूर्य प्रभाकर, अर्क मित्र अघ मोघ क्षमाकर।


॥ श्री चन्द्र स्तुति ॥

शशि मयंक रजनीपति स्वामी, चन्द्र कलानिधि नमो नमामि।

राकापति हिमांशु राकेशा, प्रणवत जन तन हरहुं कलेशा।

सोम इन्दु विधु शान्ति सुधाकर, शीत रश्मि औषधि निशाकर।

तुम्हीं शोभित सुन्दर भाल महेशा, शरण शरण जन हरहुं कलेशा।


॥ श्री मंगल स्तुति ॥

जय जय जय मंगल सुखदाता, लोहित भौमादिक विख्याता।

अंगारक कुज रुज ऋणहारी, करहुं दया यही विनय हमारी।

हे महिसुत छितिसुत सुखराशी, लोहितांग जय जन अघनाशी।

अगम अमंगल अब हर लीजै, सकल मनोरथ पूरण कीजै।


॥ श्री बुध स्तुति ॥

जय शशि नन्दन बुध महाराजा, करहु सकल जन कहं शुभ काजा।

दीजै बुद्धि बल सुमति सुजाना, कठिन कष्ट हरि करि कल्याणा।

हे तारासुत रोहिणी नन्दन, चन्द्रसुवन दुख द्वन्द्व निकन्दन।

पूजहिं आस दास कहुं स्वामी, प्रणत पाल प्रभु नमो नमामी।


॥ श्री बृहस्पति स्तुति ॥

जयति जयति जय श्री गुरुदेवा, करूं सदा तुम्हरी प्रभु सेवा।

देवाचार्य तुम देव गुरु ज्ञानी, इन्द्र पुरोहित विद्यादानी।

वाचस्पति बागीश उदारा, जीव बृहस्पति नाम तुम्हारा।

विद्या सिन्धु अंगिरा नामा, करहुं सकल विधि पूरण कामा।


॥ श्री शुक्र स्तुति ॥

शुक्र देव पद तल जल जाता, दास निरन्तन ध्यान लगाता।

हे उशना भार्गव भृगु नन्दन, दैत्य पुरोहित दुष्ट निकन्दन।

भृगुकुल भूषण दूषण हारी, हरहुं नेष्ट ग्रह करहुं सुखारी।

तुहि द्विजबर जोशी सिरताजा, नर शरीर के तुमही राजा।


॥ श्री शनि स्तुति ॥

जय श्री शनिदेव रवि नन्दन, जय कृष्णो सौरी जगवन्दन।

पिंगल मन्द रौद्र यम नामा, वप्र आदि कोणस्थ ललामा।

वक्र दृष्टि पिप्पल तन साजा, क्षण महं करत रंक क्षण राजा।

ललत स्वर्ण पद करत निहाला, हरहुं विपत्ति छाया के लाला।


॥ श्री राहु स्तुति ॥

जय जय राहु गगन प्रविसइया, तुमही चन्द्र आदित्य ग्रसइया।

रवि शशि अरि स्वर्भानु धारा, शिखी आदि बहु नाम तुम्हारा।

सैहिंकेय तुम निशाचर राजा, अर्धकाय जग राखहु लाजा।

यदि ग्रह समय पाय हिं आवहु, सदा शान्ति और सुख उपजावहु।


॥ श्री केतु स्तुति ॥

जय श्री केतु कठिन दुखहारी, करहु सुजन हित मंगलकारी।

ध्वजयुत रुण्ड रूप विकराला, घोर रौद्रतन अघमन काला।

शिखी तारिका ग्रह बलवान, महा प्रताप न तेज ठिकाना।

वाहन मीन महा शुभकारी, दीजै शान्ति दया उर धारी।


॥ नवग्रह शांति फल ॥

तीरथराज प्रयाग सुपासा, बसै राम के सुन्दर दासा।

ककरा ग्रामहिं पुरे-तिवारी, दुर्वासाश्रम जन दुख हारी।

नवग्रह शान्ति लिख्यो सुख हेतु, जन तन कष्ट उतारण सेतू।

जो नित पाठ करै चित लावै, सब सुख भोगि परम पद पावै।


॥ दोहा ॥

धन्य नवग्रह देव प्रभु, महिमा अगम अपार।

चित नव मंगल मोद गृह जगत जनन सुखद्वार।।

यह चालीसा नवोग्रह, विरचित सुन्दरदास।

पढ़त प्रेम सुत बढ़त सुख, सर्वानन्द हुलास।।



॥ इति श्री नवग्रह चालीसा ॥




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